मशहूर ग़ज़ल गायक चंदन दास के जरिए मालूम हुआ कि ग़ज़ल गायकी में मेहदी हसन की याद दिलाते रहने वाले बेहद उम्दा फनकार राजकुमार रिज़वी नहीं रहे। गज़लों को पसंद करने वाले मेरे जैसे श्रोताओं के लिए यह भारी नुकसान है, यह बात और है कि इस ग़ज़ल सिंगर को वैसी मकबूलियत हासिल नहीं हुई, जिसके वे वास्तविक हकदार थे।

80 के दशक के शुरुआती दौर में जब गज़लें सुनने का एक फैशन-सा चल पड़ा था, उन दिनों में यह पान के ठेलों तक में सुनाई पड़ जाती थीं। उस दौर में बहुत से ग़ज़ल गायक आंधी की तरह आए और तूफान की तरह चले गए। इस हलके में टिककर वही रह सके, जो वाकई इस फन में संजीदा थे। रिज़वी साहब ऐसे ही संजीदा गायक थे और मेहदी हसन के रिश्तेदार होने के अलावा उनकी आवाज और कुछ-कुछ अंदाज भी उनसे मिलता-जुलता था, चूँकि गाने-बजाने वाला घराना एक ही था।

सिनेमा के पुराने शौकीन लोगों को 70 के दशक वाली ‘लैला-मजनू” फ़िल्म की याद होगी, जो ऋषि कपूर-रंजीता को लेकर बनी थी। इस फ़िल्म का टाइटिल सॉंग उन दिनों में बड़ा मशहूर हुआ था, जिसे रिज़वी साहब ने ही गाया था। फिर किसी महफ़िल की एक रिपोर्ट “धर्मयुग” में मुझे पढ़ने को मिली थी, जिसमें राजकपूर ने रिज़वी साहब की खूब तारीफ की थी। वे इस महफ़िल में ‘पत्थर सुलग रहे थे कोई नक्शे-पा न था” गा रहे थे। रिपोर्ट पढ़ने के बाद मैं आज तक उनकी आवाज में इस ग़ज़ल की तलाश में रहा पर वो अब तक मुकम्मल नहीं हो पाई।

फिर किसी टीवी प्रोग्राम में पहली बार उन्हें सुना और यह ग़ज़ल थी, “शाख से टूटकर गिरने की सजा न दो मुझको।” यह ग़ज़ल यू-ट्यूब में उपलब्ध है और आपने उन्हें न सुना हो तो इसे जरूर सुनकर देखें। इस ग़ज़ल को सुनने के बाद उन्हें और ज्यादा सुनने की तलब लगातार बढ़ती गई। एक कैसेट हाथ में आया तो उसमें एक ग़ज़ल बड़ी मस्ती वाली थी, “हुस्ने-बेबाक ने ये कहकर उड़ाया आँचल/जा कहीं और बना अपना ठिकाना आँचल।” ओशो रजनीश के आश्रम की रिकॉर्डिंग भी हासिल हुई, जिसमें यह नायाब मोती था-“हँसते-हँसते थक जाओ तो छुपकर रो लो/ये हँसी भीगकर कुछ और चमक जाएगी।”

लिस्ट बहुत लंबी है। “तूने ये फूल जो जुल्फों में सजा रक्खा है” मेहदी हसन ने भी गाई है, पर यह खास ग़ज़ल मुझे रिज़वी साहब की आवाज में ज्यादा अच्छी लगती रही है। उस्ताद शायरों के अलावा उन्होंने समकालीन शायरों की गज़लों को भी अपनी आवाज दी। “ऐसे न बिछड़ आँख से अश्कों की तरह तू/आ लौट के आ फिर तेरी यादों की तरह तू” राजेश रेड्डी साहब की बड़ी प्यारी-सी ग़ज़ल है। बतौर सुनकार लम्बे समय तक उनका-अपना साथ रहा। फेसबुक वाली दोस्ती भी रही। उनका एक लंबा इंटरव्यू करना चाहता था पर वे इस मामले में संजीदा नहीं थे।

इन पंक्तियों को लिखते हुए इंशा अल्लाह खां की यह ग़ज़ल, जो उन्होंने बड़े मन से गाई है, मेरे कानों में गूँज रही है :

कमर बांधे हुए चलने को याँ सब यार बैठे हैं
बहोत आगे गए, बाक़ी जो हैं तैयार बैठे हैं

न छेड़ ए निक़हत-ए-बाद-ए-बहारी राह लग अपनी
तुझे अटखेलियाँ सूझी हैं, हम बेज़ार बैठे हैं

तसव्वुर अर्श पर है और सर है पा-ए-साक़ी पर
ग़र्ज़ कुछ और धुन में इस घड़ी मय-ख़्वार बैठे हैं

नजीबों का अजब कुछ हाल है इस दौर में यारो
जहाँ पूछो यही कहते हैं, “हम बेकार बैठे हैं”

भला गर्दिश फ़लक की चैन देती है किसे इंशा !
ग़़नीमत है कि हम सूरत यहाँ दो-चार बैठे हैं

साभार दिनेश चौधरी के फेसबुक वाल से