आजादी को तरसता सुदर्शन समाज
दस साल पुरानी रिपोर्ट अब भी प्रासंगिक
हमारी गणतंत्रता के 64 बरस पूरे हो गए है । संविधान ने हमें समानता के अवसर दिए है । पर ये संवैधानिक समानता सुदर्शन समाज की दहलीज पर आते ओते दम तोड़ देती है। इनको अपनी मर्जी के काम और व्यवसाय चुनने की आजादी अब तक नही है। इन पर असमानता की अघोशित बंदिशें अब भी है। अब तो इनके हिस्से के रोजगार पर भी दूसरे वर्गो का डाका पड़ रहा है। इनकों अब भी इक नई सुबह का इंतजार है।
अल सुबह धरती पर सूरज की रौशनी बिखरने के साथ ही सुदर्शन समाज के लोगों का दिन और काम शुरू होता है। यह वर्ग अपनी पहचान सुदर्शन समाज बताता है। पर सच यही है कि इस वर्ग की पहचान आज भी स्वीपर, मेहत्तर, भंगी जमादार के रूप में ही है। नगर को साफ सुथरा रखने की जिम्मेदारी सिर्फ इन लोगों के हिस्से ही है। अल सुबह जागना इनकी मजबूरी या कहें इनकी दिनचर्या का हिस्सा है। अगर ये ऐसा न करें तो शायद इनके परिवार के लोगों को दो जून की रोटी भी नसीब न हो। रोजगार के दूसरें विकल्पों की अघोषित बंदिशें यहां इनके समाज के लोगों पर अब भी लागू है। आजादी के पहले तक ये अछूत थे इनकी बस्तियां सामान्य आबादी की बसाहट से अलग ही हुआ करती थी। अब हालात ऐसे नहीं रहे जनसंख्या के दबाव व जमीन की बढ़ी कीमतों ने इनकी बस्ती को सामान्य बसाहट के बीच में ही समायोजित कर लिया है। फायदे की वजह से दिगर लोगों को इस पर अब एतराज भी नही है। आजादी के बाद के बीते बरसों में आई तब्दीलियां इनके जीवन में भी देखी जा सकती है। इनके मिट्टी के घर, घरौंदों के मानिंद ही होते थे अब इनमें से कुछेक के घर कांक्रीट के पक्के मकानों में तब्दील हो गए है। इनकी बेटियां भी दो पहिये में फर्राटे भरते काम पर जाती है। इनके बच्चे भी सरकारी स्कूलों में दूसरे बच्चों के साथ ही बैठकर पढ़ते है पर इनकी पढ़ाई अक्षर ज्ञान ओर मस्टररोल के दस्तखत तक सिमटा है।
नगर पंचायत रतनपुर के सफार्ई कर्मी की सेवा से हाल ही में सेवा निवृत्त हुई गंगा बाई बच्चों की शिक्षा पर चिंता जताते कहती है कि मां बाप बच्चों की शिक्षा पर गंभीरता से ध्यान नही देते । सारा दिन बच्चें ताश, बाटी, लुडों खेलते पड़े रहते है। बहुत बच्चे है मोहल्ले में, शासन से भी कोई मदद नही मिलती। काम करते है तो तनखा देती है। बाकी कुछ नही मिलता। आगनबाड़ी कार्यकर्ता भी मोहल्ले में नहीं आती। राशन कार्ड बना है जिसमें समय पर चावल जरूर मिलता है।
32 साल के प्रकाश गरीबी परिस्थितियों की वजह से पढ़ाई नहीं कर पाए। वे कहते हैं हमारे समाज के बहुत से युवा बेरोजगार है। बेकारी की वजह से ही शराब पीकर ताश, जुआ खेलते पड़े रहते है। नगर पंचायत में काम मांगने जाते है तो आज लगाएंगे कल लगाएगे बोलते है कभी लगाते नही । प्रकाश सवाल उठातें है कि सफार्ई काम करने वाले को दूसरा काम करने कौन बुलाएगा सर ! स्वीपर समझ के नाली, गंदगी साफ करने ही लोग बुलाते है। बचपन से यही काम कर रहे है दूसरा काम भी नहीं कर सकते। इन सब के बीच इन्होने अपनी हदें तय कर रखी है हदों पर खुद की खीची लक्षमण रेखा को लांघने का साहस भी इनमें नही है।
इस दुखती रग को छेड़ने पर जानकी की आंख नम हो जाती है वे कहती है हमे भी होटलों में साथ बैठकर खाने पीने का शौक लगता है। अंदर बड़े बड़े लोग रहते है अंदर नही घुस सकते। बाहर से ही चिल्लाते रहते है। जाने वाले जाते है हम पुराने इ्ंसान है इज्जत करते है। कहीं बाहर जाते है तो अंदर में बैठकर खाते है। यहां भी मना नही करते पर दूसरी तरफ से देते है। मंदिर में भगवान के यहां भी अब कोई रोक टोक नही है।

शासन की योजनाओं पर सवाल उठाते 37 साल के सतीश सोनखरे कहते है कि क्या मिला शासन से हमें कुछ नही मिला। सारे समाज के लोगों के लिए शासन ने सामाजिक भवन बना के दी है। हमे आज तक कोई सुविधा नही दी है। पीढि़यों से सफार्ई कर्मी के रूप में काम करते आ रहे है। अब सरकारी कार्यालयों में स्कूलों में स्वीपर के रिक्त पदों पर हमारे लोगों की नियुकित नही होती । सामान्य वर्गो के लोगों की भर्ती की जा रही है। नाम तो स्वीपर का रहता है पर काम नहीं करते हमारे लोगों को ले जाकर थोड़े पैसे देकर काम कराते है। नगर पंचायत में हमारे लोगों की सीधी भर्ती सफार्ई कर्मी के रूप में होती थी। अब वो उम्मीद भी टूट गई है। सारा काम ठेके पर दे दिया गया है। शासन का निर्देष था कि वर्ष 1997 के पहले के कार्यरत दैनिक वेतन भोगी कर्मियो को नियमित करने का उसका भी पालन नहीं हुआ हमारे बहुत से लोगों को निकाल दिया गया। अब ठेकेदार के मजदूर के रूप में काम कर रहे हैं । सतीश’ कहते है कि हमारा भी मन होता है कि हम अच्छा काम करे आगे बढ़े पर समाज का नजरिया भी तो ठीक नही है। कोई रोकता टोकता नहीं, पर महसूस तो होता है। सुबह से हमारा पूरा परिवार नगर की साफ-सफार्ई में जूट जाता है। बच्चों की देखभाल ठीक से नहीं हो पाता। बच्चे इधर-उधर घूमते खेलते रहते है । इसी वजह से बच्चों की पढ़ाई भी नहीं हो पाती।
अब ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि आजादी के बाद की गणतांत्रिक व्यवस्था में आखिर क्या विसंगतियां रह गई की सुबह के सूरज की रौशनी इनके घरौंदों तक पहुंचने से पहले ही ग्रहण में छिप जाता है। कब आएगा इनके जीवन में सवेरा…कब होही बिहनिया…