श्रद्धांजलि

नहीं रहे मोहन हीराबाई हीरालाल

गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता मोहन हीराबाई हीरालाल के निधन से आदिवासियों के हक में उठने वाली एक आवाज़ और कम हो गई। गुरुवार को नागपर के एक अस्पताल में उनका निधन हो गया। मोहन हीराबाई 75 बरस के थे, और हाल हाल तक बेहद सक्रिय थे। यों तो उनके बारे में काफी पहले से पढ़ता सुनता रहा हूं, लेकिन मैं उनके संपर्क में 2015 के बाद आया था, जब मैं मध्य भारत के आदिवासी नेता लाल श्याह शाह पर केंद्रित किताब लिख रहा था। दरअसल मोहन हीराबाई हीरालाल महाराष्ट्र के चंद्रपुर-गढ़चिरोली में सक्रिय थे, जहां कभी लाल श्याम शाह ने आदिवासियों के हक में कई आंदोलन चलाए थे। खुद मोहन हीराबाई भी लाल श्याम शाह के संपर्क में थे। इसी इलाके में लाल श्याम शाह ने 1980 के दशक में मानव बचाओ जंगल बचाओ अभियान चलाया था। मोहन हीराबाई भी इस आंदोलन का हिस्सा रहे। वह और देवाजी तोफाजी ने गढ़चिरोली में आदिवासियों के वनाधिकार को लेकर लगातार संघर्ष किया। हैरत नहीं कि  उन्हीं के प्रयास से 27 अप्रैल, 2011 को वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत गढ़चिरोली के धानोरा ताल्लुका के मेंढा लेखा गांव में ग्रामवासियों को बांस के व्यापार से संबंधित सारे अधिकार सौंपे गए। उसी दौर में तोफा जी का नारा, दिल्ली मुंबई में हमारी सरकार, मेंढा लेका में हम ही सरकार, काफी चर्चित हुआ था।
लाल श्याम शाह, एक आदिवासी की कहानी लिखते समय मुझे कई बार धानोरा और मेंढा लेखा भी जाना पड़ा था। इसकी प्रस्तावना लिखने वाले रामचंद्र गुहा ने मुझे एक दिन अचानक फोन कर कहा, सुदीप जानते हो मैं कहां हूं? मैंने पूछा कहां सर! उनका जवाब था लाल श्याम शाह के क्षेत्र में मोहन  हीराबाई हीरालाल के साथ!
लाल श्याम शाह, एक आदिवासी की कहानी जनवरी, 2018 के पुस्तक मेले में आई थी। उसके करीब डेढ़ साल बाद पुणे स्थित साधना पत्रिका समूह ने इसका मराठी अनुवाद प्रकाशित किया था। जून, 2019 के पहले हफ्ते में पुणे के प्रेस क्लब में किताब के मराठी अनुवाद के विमोचन और उस मौके पर हुई एक परिचर्चा के लिए साधना पत्रिका के संपादक विनोद शिरसाठ ने खास तौर से मोहन हीराबाई हीरालाल और देवाजी तोफा को भी बुलाया था। उस दौरान मोहन हीराबाई हीरालाल के साथ दो दिन रहना हुआ। काफी बातें हुई हैं, जिसमें वे समाज की सामुदायिक शक्ति पर जोर दे रहे थे। उनक कहना था कि समूह में काम करने के साथ ही व्यक्तिगत स्वतंत्रता भी महत्त्वपूर्ण है। व्यक्ति की मर्यादा जहां खत्म होती है, वहां समाज की जिम्मेदारी शुरू होती है। मुझे याद है, उन्होंने जोर देकर कहा था, “व्यक्तिगत मिल्कियत विषमता का बड़ा कारण है।”
देश में आज जिस तरह से पूंजी शीर्ष क्रम के एक फीसदी लोगों तक सिमटती जा रही है और विषमता बढ़ रही है, उसमें मोहन हीराबाई के इन शब्दों का संदर्भ तलाशा जा सकता है।
बीते वर्षों में कुछ महीनों के अंतराल में मोहन हीराबाई से फोन पर बात होती रही। वह इन दिनों आदिवासियों के वनाधिकार खासतौर से उनके पट्टों को लेकर चिंतित थे। उनके मुताबिक वनाधिकार पर अमल के लिए छत्तीसगढ़ आदर्श राज्य है, जहां अभी बहुत काम किए जाने की जरूरत है। वह खांटी गांधीवादी थे और समूह की ताकत में यकीन करते थे। वह निर्णय लेने की प्रक्रिया में इकाई के तौर पर व्यक्ति को समूह का हिस्सा मानते थे और उनका कहना था कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सामूहिकता दोनों ही जरूरी हैं। उनसे बात करना हमेशा समाज और व्यक्ति को समझने के सबक लेने जैसा था। सादर नमन!

साभार वरिष्ठ पत्रकार सुदीप ठाकुर के फेसबुक वॉल से