बिलासपुर। ‘राष्ट्रीय खाद्य तेल मिशन-पाम ऑयल’ के तहत् अब छत्तीसगढ़ में भी पाम ऑयल की खेती की जाएगी। प्रारंभिक सर्वेक्षण में प्रदेश के पांच जिलों को उपयुक्त पाया गया है।

छत्तीसगढ़ में पाम ऑयल की खेती निश्चित रूप से आय और रोजगार के नए द्वार खोलेगी लेकिन कुछ ऐसे पर्यावरणीय एवं सामाजिक मुद्दे हैं, जिनका निदान समय रहते आवश्यक माना जा रहा है। योजना का स्वागत कर रहे वानिकी वैज्ञानिकों का मानना है कि पाम तेल की खेती सतत कृषि सिध्दांतों के अनुरूप की जानी चाहिए। जिसमें वन सुरक्षा, जल प्रबंधन, स्थानीय समुदाय की भागीदारी और दीर्घकालिक दृष्टिकोण शामिल हो। संतुलित एवं समावेशी रणनीति ही इस योजना को सफल बना सकती है।

यह पांच उपयुक्त

प्रदेश के बस्तर, सुकमा, बीजापुर, कांकेर और कोरबा जैसे पांच जिलों को प्रारंभिक सर्वेक्षण में पाम ऑयल की खेती के लिए उपयुक्त माना गया है। यह इसलिए क्योंकि इन जिलों की जलवायु 1500 से 2000 मिली मीटर बारिश और तापमान 25 से 35 डिग्री सेल्सियस सालाना रहता है। यह स्थिति पाम ऑयल की खेती का मानक है। इसके अलावा यह क्षेत्र सिंचाई साधन से संपन्न है।

संभावना बेहतर की

पाम- ट्री लगाने के बाद 30 से 35 वर्ष तक उपज देता है, जिससे किसान को स्थिर आय प्राप्त हो सकती है। तैयार उपज के लिए प्रोसेसिंग यूनिट, तेल मिल और पैकेजिंग यूनिट की स्थापना होगी। जिससे स्थानीय स्तर पर रोजगार के अवसर मिलेंगे। इसके अलावा इसका कृषि क्षेत्र भी रोजगार देगा। योजना के अनुसार पाम तेल से बायोडीजल उत्पादन की संभावना की तलाश की जाएगी। इस तरह यहाँ भी रोजगार का सृजन संभव है।

यह चार चिंता

पाम की खेती के लिए बड़े पैमाने पर जंगलों की कटाई से जैव-विविधता को खतरा। पाम की फसल को बहुत अधिक सिंचाई की जरूरत होती है। यह जल संकट की वजह बन सकती है। एक ही फसल के लिए दीर्घकालिक दोहन, मिट्टी की गुणवत्ता को प्रभावित कर सकता है। पाम की फसल तैयार होने में काफी समय लगता है। इससे छोटे किसानों को हतोत्साहित होने की आशंका अपनी जगह मजबूती के साथ मौजूद है।

पारिस्थितिकी और आजीविका के बीच संतुलन आवश्यक

पाम ऑयल की खेती को अपनाते समय हमें वन संरक्षण, जल प्रबंधन और समुदाय की सहभागिता को प्राथमिकता देनी होगी। यह खेती तभी लाभदायक सिद्ध होगी जब यह पारिस्थितिकी और आजीविका के बीच संतुलन बनाए रखे। विशेषकर उन क्षेत्रों में जहाँ वन क्षेत्र संवेदनशील हैं, वहाँ पाम ऑयल की जगह बहुवर्षीय स्थानीय प्रजातियों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। योजनाएं तभी सफल होंगी जब वे सतत और समावेशी हों। तभी छत्तीसगढ़ में यह पहल वास्तव में फलदायक साबित हो सकेगी।
अजीत विलियम्स, साइंटिस्ट (फॉरेस्ट्री), बीटीसी कॉलेज ऑफ़ एग्रीकल्चर एंड रिसर्च स्टेशन, बिलासपुर