आजादी के अमृत काल से भी आगे बढ़ गया हमारा देश। इस 15 अगस्त को पूरा देश जश्न में डूबा रहा है। जगह जगह ध्वजारोहण होते रहे, जहाँ से लोग कहते-सुनते रहे वो दासता की तहरीरें, जो अब की पीढ़ी के लोगों ने देखी नहीं है। इन बिखरी खुशियों के एक दिनी ‘दिखावे’ में सबकी अपनी-अपनी हिस्सेदारी है। इन सब के साथ सरकारी अस्पताल के कोने में लगे बिस्तर पर बैठी ‘लाजवंती’ भी खुश है! उसकी खुशी के कारण आजादी नहीं कुछ और है। खुशी से फुली नहीं समा रही जंगल की बेटी मासूम ‘लाजवंती’। शादी के करीब 18 साल बाद उसकी गोद में किलकारी गूंजी है। बेटी की पैदाइश का दिन भी ऐसा, की लग रहा पूरा देश ही उसकी खुशियों में शामिल है। वो सुबह-सुबह सरकारी अस्पताल के कोने में लगी बिस्तर के साथ की लगी दीवार की खिड़की से बाहर पोल पर टंगे तिरंगे को हवा के साथ लहराते देखती रही। गोद पर रखी बेटी का मासूम चेहरा और खिड़की के बाहर ऊंचाई पर हवा में फहराता नजर आता तिरंगा। वो भूल गई है कि महीना भर पहले ही वो क्यों तोड़ आई थी अठ्ठारह बरस पहले परिजनों के कसे ‘गठबंधन’ को।
उसका मन मैला नहीं। उसके मन में भी ‘भारत माता’ की ही तरह किसी के लिए कोई द्वेष, कलेश नहीं है। अतीत को कुरेदने पर भी वो शिकवा भी नहीं करती। नाते रिश्तेदारों से भरापूरा परिवार होने की बात कहती है। इससे इतर उसका पूरा सच जुबान पर आकर ही अटल जाती है। उसके सिर पर अभी कोई छत नहीं। उसके पास नौ महीने सिकम में रहकर बाहर आई नवजात के सिवाय कोई अपना नहीं। उसका घर जहाँ उसने अट्ठारह साल का अरसा गुजारा, जहाँ न जाने उसकी कितनी यादें जुड़ी हो, वो वहां जाने की बात मुंह पर नहीं लाती। वो लौटना क्यों नहीं चाहती, इसका भी ठीक-ठीक जवाब देना नहीं चाहती । उसे किसी से भी शिकवा-शिकायत नहीं है। ज्यादा कुरेदने पर कहती है नशेड़ी पति उसकी पिटाई करता था। इसके चलते ही घर बार छोड़ कर पेट में पलती की बच्ची के साथ ईश्वर के भरोसे आ गई। वो तोड़ आई है सात वचनों से बंधे अट्ठारह साल पुरानी गठबंधन को।

कवर्धा जिले के बोड़ला ब्लॉक के पास किसी गाँव में उसका अपना घर है। वो कहती है नशेड़ी पति की पिटाई और प्रताड़ना से वो हलाकान थी। कोई अठारह बरस पहले उसकी शादी हुई थी। इतने बरस से उसकी गोद सूनी थी। पति की पिटाई से हलाकान हुई तो घर छोड़ भोरमदेव चली गई जहाँ कुछ दिन रही। वहाँ से वो दो अगस्त की देर शाम रतनपुर पहुँची । देर रात तक हो रही भारी बारिश में पुराने बस स्टेशन के पास गर्भवती लाचार महिला को देख लोगों ने उससे पूछताछ की। इसमें उसने अपना नाम और गांव की जानकारी दी। वो लोगों के सवालों के जवाब भी ठीक से नहीं दे पा रही थी। लोगों को लगा कि वो मानसिक रूप से कमजोर है। मामले की सूचना पुलिस को दी गई। रतनपुर थाने से पुलिस के जवान उसे लेकर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र रतनपुर पहुंचे। जहाँ स्वास्थ्य जांच कर उसे भर्ती करा दिया गया। दो दिन अस्पताल में रहने के बाद फिर अचानक किसी को कुछ बताए बिना ही वो कहीं चली गई। फिर अचानक 14 और 15 अगस्त की दरमियानी रात दो महिलाएं उसे लेकर अस्पताल पहुंची। जहाँ 15 अगस्त की रात उसने सामान्य प्रसव में ‘अमृता’ को जन्म दिया है। शादी के अठ्ठारह बरस बाद उसकी गोद में ‘अमृता’ की किलकारी गूंजी है। इन सब के साथ सवाल ये है कि हमारी आजादी के 75 बरस, अमृतकाल पार इस समय में जंगल की इस मां और बेटी के लिए मनभावन घर-आंगन कहाँ है ! जहाँ से इस मां के भी सपने परवान चढ़े और बेटी जंगल की हिरनी की तरह ही शहर की भी सड़कों और स्कूल में कुलांचे भरे।