प्रेमकुमार मणि

मशहूर दिवंगत नेता कांशीराम का 15 मार्च को जन्मदिन है . 1934 में पंजाब प्रान्त के रोपड़ या रूपनगर जिलान्तर्गत खासपुर गांव में उनका जन्म हुआ था. अनेक कारणों से कांशीराम के लिए मेरे मन में अथाह सम्मान है. उनसे एक छोटी -ही सही मुलाकात भी है, लेकिन यह महत्वपूर्ण नहीं है. महत्वपूर्ण है उनकी वह राजनीति, जिसने कई बार असंभव को संभव कर दिया. भारत के सबसे बड़े प्रान्त उत्तरप्रदेश, जो गाय, गंगा, गीता के द्विजवादी विचार -चक्र में हमेशा बंधा -सिमटा रहा, में अम्बेडकरवाद की धजा उन्होंने ऐसी फहराई कि महाराष्ट्र के लोग देखते रह गए. उनके काम करने के तरीकों को देख कर हैरत होती है. एक गरीब और जाति से दलित माँ -बाप के घर जन्मा बालक केवल अपनी धुन के बल पर तमाम कठिनाइयों को पार करता हुआ, देश भर में चर्चित होता है और कमसे कम उत्तर भारत के दलितों को पिछलग्गूपन की राजनीति से मुक्त कर उसकी स्वतंत्र राजनीति तय करता है ,यह इतना विस्मयकारी है, जिसकी कोई मिसाल नहीं है. कांशीराम का अध्ययन अभी हुआ नहीं है ,होना है. कांशीराम को पसंद करने वाले केवल उनके द्वारा स्थापित पार्टी के लोग ही नहीं हैं. अनेक पार्टियों के लोग, जो बहुत संभव है पूरी तरह उनकी वैचारिकता से सहमत न हों, भी उनके संघर्ष करने के तरीकों से सीखते रहे हैं. उत्तरमार्क्सवादी दौर में भारतीय राजनीति के निम्नवर्गीय प्रसंग को कांशीराम के बिना पर समझना किसी केलिए भी मुश्किल होगा.

9 अक्टूबर 2006 को उनके निधन की जानकारी मुझे नीतीश कुमार ने दी. उस वक़्त भी वे बिहार के मुख्यमंत्री थे. फोन पर उनकी आवाज भर्राई हुई थी. कांशीराम कोई अचानक नहीं मरे थे. लम्बे समय से वह बीमार थे. उनकी स्मृति ख़त्म हो गयी थी. हम सब उनकी मृत्यु का इंतज़ार ही कर रहे थे. उनका नहीं होना एक युग के ख़त्म होने जैसा था. कांशीराम जैसे व्यक्तित्व कभी -कभी ही आते हैं. नीतीश कुमार चाहते थे कि आज ही पार्टी कार्यालय में एक शोकसभा हो. सभा हुई भी. फोटो-फूल जुटाने में भी वह तत्पर रहे. तब मैं जदयू की राजनीतिक सक्रियता का हिस्सा था. कांशीराम से हमलोगों की पार्टी का कभी कोई मेल -जोल नहीं रहा था . फिर भी हम सब व्यग्र थे. नीतीश का इस अवसर पर दिया गया भाषण भावपूर्ण था . यह अलग बात है कि उन भावों पर उनने अपनी राजनीति को नहीं टिकने दिया. यह केवल नीतीश कुमार का हाल नहीं था. उनकी ही पार्टी बसपा के लोगों और उनके द्वारा घोषित उत्तराधिकारी मायावती ने भी यही किया. सम्मान देना एक बात है, उनके रास्ते पर चलना अलग. कांशीराम के कदमों पर चलना आसान नहीं था.

1964 में कांशीराम की उम्र तीस साल थी. वह एक्सप्लोसिव रिसर्च एंड डेवलपमेंट लैब में रिसर्च असिस्टेंट की नौकरी कर रहे थे. एक रात अचानक वह गौतम सिद्धार्थ की तरह कुछ प्रतिज्ञाएं करते हैं. २४ पृष्ठों का एक महापत्र पूरी दुनिया के नाम लिखते हैं ,जिसके सात मुख्य बिंदु थे. लोगों को इसे आज भी जानना चाहिए. खास कर नयी पीढ़ी को . –
१. कभी घर नहीं जाऊंगा .
२. अपना घर नहीं बनाऊंगा .
३. गरीब दलितों के घर ही हमेशा रहूँगा .
४ . रिश्तेदारों से मुक्त रहूँगा
५. शादी, श्राद्ध, बर्थडे जैसे समारोहों में शामिल नहीं होऊंगा .
६ . नौकरी नहीं करूँगा और
७. फुले -आंबेडकर के सपनों को पूरा होने तक चैन से नहीं बैठूंगा.

यह कांशीराम का सन्यास था, जिसे उन्होंने निभाया. एक बार मंच से जब वह बोल रहे थे, भीड़ में उनके पिता श्रोताओं के बीच बैठे दिखे. पिता ने भी मिलने की इच्छा दिखलाई. लेकिन कांशीराम नहीं मिले. पिता की मृत्यु पर भी वह घर नहीं गए, जो छूट गया सो छूट गया. आजीवन माँ से भी नहीं मिले. कभी -कभी लगता है इतना कठोर होना क्या जरुरी था ? इसका जवाब तो काशीराम ही दे सकते थे.

रोपण का वो डाकबंगला

दरअसल यह कठोरता इसलिए थी कि वह अत्यंत संवेदनशील थे. जब वह बच्चा ही थे, एक दफा पिता से मिलने रोपड़ तहसील के डाकबंगले पर पहुंचे जहाँ उनके पिता दैनिक मज़दूर थे. कोई साहब बंगले में रुका हुआ था. पुराने ज़माने का हाथ से चलने वाला पंखा वहां लगा था जिसकी डोरियाँ खींचने केलिए उसके पिता हरी सिंह वहां तैनात थे. पंखा खींचते थके हुए पिता सो गए थे और दयनीय दिख रहे थे. बालक कांशीराम चुपचाप वहां से चला आया. बहुत वर्षों बाद कांशीराम खुद संसद सदस्य बने और इत्तफाकन संसदीय समिति की बैठक में भाग लेने के लिए रोपड़ पहुंचे और उसी डाकबंगले में रुके जो रूपांतरित होकर एक आधुनिक अतिथिशाला बन चुका था. रात को एक भयानक सपने ने उन्हें जगा दिया .पसीना -पसीना हुए वह दौड़ कर बाहर आये. देखा कोई नहीं है. दरअसल उन्होंने स्वप्न देखा था कि उनके पिता वही पुराने ज़माने वाला डोरीदार पंखा झल रहे है, डोरियाँ खींच रहे है और बाहर बैठे हैं. ऐसे सपने सब नहीं देखते. कांशीराम कहा करते थे कि सपने वे नहीं होते जो हम सोये हुए देखते हैं, सपने वे होते हैं ,जो हमें सोने नहीं देते.

” चमचायुग “

उनकी किताब ” चमचायुग ” हर राजनीतिक कार्यकर्त्ता को पढ़नी चाहिए ,यह किताब भिन्न अवसरों पर मैंने बिहार के दो दिग्गज मित्र राजनेताओं -नीतीशजी और लालूजी – को इस विश्वास के साथ दी कि वह कुछ लाभ उठाएंगे . लेकिन पढ़ने की जहमत कोई क्यों उठाने जाय . कांशीराम ने चमचों के छह प्रकार बतलायें हैं . ऐसे चमचों से तमाम पार्टियां भरी हैं ; उनकी पार्टी बसपा भी .

विचारों और कार्यशैली को झकझोरा

कांशीराम की कुछ सीमायें भी थी. हर की होती है. कबीर की तरह हद और बेहद के पार जाने वाला बिरले ही होते हैं. लेकिन इन सब के बावजूद वह ऐसे थे जिन्होंने समय पर हमारे विचारों और कार्यशैली को झकझोरा. इस बात को स्थापित किया कि परिवर्तन की राजनीति का क्या अर्थ होता है और खाली हाथ चलकर भी इस पूंजीवादी दौर में सफल राजनीति संभव है. उन्होंने कभी किसी चीज का रोना नहीं रोया. परिस्थितियों से जूझे, संघर्ष किया और बिना किसी बाहरी शक्ति या सहयोग के सफलता हासिल की. उत्तरभारत की राजनीति से गांधीवाद की बुखार को उतार कर उनने फुले -अम्बेडकरवाद के लिए ऐसी अनुकूलता विकसित की कि आज घर -घर में इन पर चर्चा होती है. यह अत्यंत महत्वपूर्ण काम है ,जिसकी समीक्षा भविष्य में होगी .

जयंती पर उनकी स्मृति को नमन .