प्रेमकुमार मणि
आज भारत की प्रथम शिक्षिका सावित्री बाई फुले का जन्मदिन है और हम उनके व्यक्तित्व का स्मरण -अभिनन्दन करते हैं . 1848 ई में , अपने पति महात्मा जोतिबा फुले से प्रेरित हो और साथ मिलकर उन्होंने एक अजूबा स्कूल खोला ,जो शूद्रों और स्त्रियों के लिए समर्पित था . उस ज़माने में स्त्रियों और शूद्रों का पढ़ना मना था . यही हमारा सामाजिक आदर्श था . फुले दम्पति ने इसे चुनौती दी थी . तब जोतिबा इक्कीस की उम्र के थे ,और सावित्री महज़ अठारह की .
इसी साल सुदूर यूरोप में तीस वर्षीय युवा मार्क्स कम्युनिस्ट घोषणापत्र रख रहे थे . कल्पना करता हूँ ,मार्क्स और फुले यदि मिलते तो क्या होता ? यह तो तय है कि दोनों जल्दी ही मित्र हो जाते और एक दूसरे को वैचारिक रूप से समृद्ध करते . दोनों की समझदारी का एक मौन संवाद हमें उन के लेखन में मिलता है . भारत की दुर्दशा के लिए मार्क्स यहाँ की सामाजिक गतिहीनता को जिम्मेदार बतलाते हैं और इसके पीछे वह उत्पादन के पारंपरिक टूल्स पते हैं .इन्हें तहस -नहस करने वाले अंग्रेजी राज को वह इतिहास का अवचेतन साधन कहते हैं . फुले भी अंग्रेजी राज का विश्लेषण करते हैं , कुछ अपने तरीके से . भारत में अंग्रेजी राज जिन कारणों से आया था ,उसकी गहरी समीक्षा फुले ने की थी . उन कारणों को ख़त्म किए बिना भारत की वास्तविक आज़ादी संभव नहीं थी . भारत की सामंतवादी -पुरोहितवादी ताकतें चाहती थीं कि अंग्रेज जाएं और भारत हमारे शोषण के लिए ,हमारी नवाबी के लिए उपलब्ध हो जाए . फुले इसके विरुद्ध थे . मार्क्स की तरह उन्होंने भी अंग्रेजों को एक अवचेतन साधन माना था . कुछ यही कारण था कि 1857 का सिपाही विद्रोह उनकी नजर में भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम नहीं भारतीय सामंतवाद का आखिरी संग्राम था . सावरकर और फुले ने अलग -अलग तरीकों से उसे देखा था . दरअसल यह वर्गीय दृष्टिकोण का भेद था .
फुले दम्पति ने एक मज़बूत भारत का स्वप्न देखा था और इसके लिए वह शिक्षा को ज़रूरी मानते थे . वह भेदभाव मुक्त एक ऐसे समाज -देश को स्थापित करना चाहते थे ,जहाँ मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण न हो . यही तो कार्ल मार्क्स भी चाहते थे . मार्क्स ने यूरोपीय समाज को देख कर अपनी राय बनाई थी . फुले ने हिंदुस्तान को देखा था . यूरोप में औद्योगिक क्रांति हो चुकी थी और वहाँ सर्वहारा मजदूर तबका आबादी का एक बड़ा हिस्सा बन चुका था . सामंती समाज ख़त्म हो गया था और पूंजीवादी समाज विकसित हो रहा था ,जो लाभ और लोभ का सामाजिक -दर्शन थोप रहा था . मार्क्स ने इसकी मुखालफत की . मिहनतक़शों के लिए एक मुक़्क़मल दर्शन तैयार किया और दुनिया को बदलने का आह्वान किया . उनकी राय थी कि सम्यक बदलाव केवल मिहनतक़श वर्ग ही कर सकता है .
कमोबेश यही मनःस्थिति फुले की भी थी . उन के देश में कोई पूंजीवादी समाज नहीं था . सामंतवादी साये में पिछड़ी हुई कृषि व्यवस्था चल रही थी और पुरोहिती सामाजिक दर्शन द्वारा किसानों का शोषण हो रहा था . फुले ने बतलाया कि बिना शारीरिक परिश्रम किए बात बना कर पेट भरने वाले ये पुरोहित समाज के कलंक हैं . वह दूसरों के श्रम पर पलते हैं .परजीवी हैं . फुले ने किसानों को एकजुट होने की बात की . किसानों की गुलामी जिन-जिन कारणों से थी ,उसकी पड़ताल की . एक किताब लिखी ‘गुलामगिरी ‘ . भारत के मिहनतक़श किसान शिक्षित नहीं थे . इस अशिक्षा के आधार पर उन्हें मूर्ख बनाना आसान था . पुरोहित तबके ने उन पर ऐसी सांस्कृतिक गुलामी थोप दी थी ,जिस से मुक्त होना आसान नहीं था . फुले ने इस गुत्थी को समझा . मिहनतक़श तबकों को शिक्षित करने के लिए वह आगे आए . उन्होंने जो किया उसका आकलन हमारे इतिहास ने अब तक नहीं किया है .
आज भारत के किसान एक बार फिर निर्णायक लड़ाई लड़ रहे हैं . इस दफा उनकी लड़ाई पुरोहितवाद से नहीं ,सीधे पूंजीवाद से है . फुले की दुनिया दो सदी पीछे की थी . भारतीय पूंजीवाद का तब कोई ठिकाना नहीं था . लेकिन आज तो वही सर्वोपरि है . संसद उसके ठेके पर है और हुकूमत उसकी जेब में . अडानी -अम्बानी देश के सब से बड़े देवता बन चुके हैं . उन सब ने अपना पंजा किसानों की ओर बढ़ाया है . अंग्रेजीराज के बाद से ज़मींदारी उन्मूलन के साथ किसानों को जो भी थोड़ी -बहुत आज़ादी मिली थी ,उसे ये पूंजीपति ख़त्म करना चाहते हैं . उनकी कोशिश किसानों को गुलाम बनाने की है . खेती -बारी के धंधे में ये अडानी -अम्बानी आखिर क्यों कूदना चाहते हैं ? किसानों पर एकबारगी इस तरह दयावान होने के पीछे उनकी मनसा क्या है ? किसान इसी से भयभीत हैं . वे अपनी पूरी ताकत से प्रतिरोध में सड़कों पर आ गए हैं .उन्हें नसीहतें दी जा रही हैं . एक समय ज़मींदारों -सामंतों -पुरोहितों द्वारा भी उन्हें ऐसी ही नसीहतें दी जा रही थीं . भारत में अंग्रेज आए थे तब वह भी अँधेरे में रौशनी फ़ैलाने के वायदे के साथ थे . हर शिकारी दाने के साथ जाल फैलाता है . भारत के कुछ किसान उस जाल को देख रहे हैं ,कुछ शिकारी के दानों को .
आज फुले दम्पति होते तो वे अपने किसानों के साथ खड़े होते . वे ललकार रहे होते . उन्हें ‘गुलामगिरी’ से मुक्ति के पाठ पढ़ा रहे होते . उन्हें भीमा -कोरेगांव के किस्से सुना रहे होते . नक्सलबाड़ी की याद दिला रहे होते . पूंजीवाद और पुरोहितवाद के गठजोड़ की व्याख्या कर रहे होते . मानव मुक्ति के फलसफे समझा रहे होते .
3 जनवरी , 2021