खरपतवार प्रबंधन की रखनी होगी तैयारी



बिलासपुर। बेहद करीब हैं दिन खरपतवार के। सिंचाई साधन वाले खेतों में अंकुरण भी होने लगे हैं। प्रबंधन की तैयारी करनी होगी किसानों को, नहीं तो मुख्य फसलों की बढ़वार पर ब्रेक लगा सकते हैं यह खरपतवार।

बेहद तेजी से बढ़ते हैं खरपतवार। सतर्क रहना होगा। प्रबंधन की पुख्ता तैयारी करनी होगी, नहीं तो सांवा, और दूब जैसी प्रजाति, ताजा-ताजा तैयार हो रही धान की फसल को जबर्दस्त नुकसान पहुंचा सकतीं हैं। पांच और भी प्रजातियां हैं खरपतवार की, जिन्हें मुख्य फसल को लगभग खत्म करने वाला माना गया है।

तैयार हो रहे

खरीफ सत्र में धान की फसल के लिए सांवा, मोथा, कोदो, दूब, कनकौआ, जंगली जूट और जंगली धान को मुख्य खरपतवार माना गया है। बेहद नुकसान पहुंचाने वाली खरपतवार की इन प्रजातियों का प्रबंधन नहीं किया गया, तो अपने साथ, कीट प्रकोप की परिस्थितियां भी बनातीं हैं। प्रारंभिक चरण में हैं यह प्रजातियां।

ऐसे पहुंचाते हैं हानि

स्थान, वायु, प्रकाश, नमी और पोषक तत्वों की प्राप्ति के लिए बोई गई मुख्य फसल से जोरदार प्रतिस्पर्धा करते हैं। शीघ्र और तेज बढ़वार वाली यह प्रजातियां फसल के ऊपर छाया की आवृत्ति फैलाती है। इसकी वजह से मुख्य फसल को प्रकाश और वायु नहीं मिलती। यह स्थिति हानि पहुंचाने वाले कीटों को परिवार बढ़ाने में मदद करती है।

आसान है पहचान

किसान इनकी पहचान बोलचाल की भाषा में करते हैं। जिसके अनुसार वर्गीकरण में चौड़ी पत्तियां खरपतवार मोथा की होती है। संकरी पत्तियों वाली प्रजातियों में सांवा और दूब घास को लिया गया है। मोथा परिवार के सदस्यों में लंबी और तीखी पत्तियां तथा ठोस तना वाले खरपतवार को हानि पहुंचाने वाला माना गया है।

प्रभावी नियंत्रण ऐसे

निवारण विधि- उन्नत किस्म के प्रमाणित बीज का प्रयोग करें। अच्छी तरह से सड़ी हुई गोबर खाद और कंपोस्ट खाद का छिड़काव। ग्रीष्म काल में कल्टीवेशन। सिंचाई नालियों की सफाई।
यांत्रिक विधि- सबसे सरल और प्रभावशाली यह विधि बोनी के 25 दिन और दूसरी बार 45 दिन बाद अपनाना होता है। इसमें निंदाई और गुड़ाई करना होगा।
रासायनिक विधि- रासायनिक विधि को कारगर उपाय माना गया है। इसमें पानी और रसायन का घोल मानक मात्रा में होना चाहिए। स्प्रेयर में फ्लैट फैन या जेट नोजल का ही उपयोग करें।

तैयारी रखें

नुकसान पहुंचाने वाली खरपतवार की प्रजातियां प्रारंभिक अवस्था में हैं। इसलिए इन पर नजर रखें। 20 से 25 दिन की उम्र होने पर प्रभावी नियंत्रण पाया जा सकता है। किसानों को इसकी तैयारी रखनी होगी।
– डॉ एस आर पटेल, रिटायर्ड साइंटिस्ट, एग्रोनॉमी, इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर