बांस शिल्प की हालत हो रही खराब
भाटापारा। नहीं खरीदे जाते बांस से बने पंखे। सीजन है सूपा और पर्रा का लेकिन इसके भी खरीददार नहीं है। छोटी सी आशा थी, अक्षय तृतीया पर खरीदी की, वह भी पूरी नहीं हुई।
बांस से बनी ऐसी सामग्रियों की, हालत बेहद खराब है। प्रोत्साहन और बढ़ावा देने के लिए सरकार ने योजना तो खूब बनाई है लेकिन उपभोक्ता मांग का प्रवाह प्लास्टिक की ओर जा चुका है। इसलिए बांस से बनी ऐसी सामग्रियां, जिनकी जरूरत हर घर में होती है, राह देख रहीं हैं उपभोक्ता मांग की।

हताश है बाजार
दिन-प्रतिदिन कम होता जा रहा है बांस से बनी सामग्रियों का बाजार। ऐसा भी समय था, जब पूरे साल मांग निकला करती थी। बाजार को पर्व और उत्सव का सहारा मिला करता था। अब वह भी लगभग खत्म हो चला है। ग्रामीण क्षेत्र भी मांग नहीं करता। कहा जा सकता है कि अंतिम सांस ले रहा है, बांस शिल्प का बाजार।
दूर हो रहे शिल्पकार
हर जगह होते थे बांस से घरेलू उपभोग के लिए सामग्री बनाने वाले शिल्पकार। अब यह केवल वहीं मिलेंगे, जहां मांग है। बाजार पहले ही किनारा करने का संदेश दे चुका है। ऐसे में योजनाएं कहां तक साथ निभा पाएंगी ? भरोसा नहीं है इसलिए कारीगर तेजी से किनारा कर रहें हैं।

मांग का प्रवाह यहां
बांस के नहीं, अब प्लास्टिक का सूपा, पर्रा, टोकना,टब और झाड़ू- बुहारी आने लगा है। टिकाऊ मानी जाती हैं यह सामग्रियां। इसलिए उपभोक्ता मांग का प्रवाह, दिशा बदल चुका है। हद तो तब, जब हाथ पंखा तक प्लास्टिक से बना हुआ ना केवल आ रहा है बल्कि मांग भी जोरदार निकल रही है। याने अच्छे दिन की संभावना पूरी तरह खत्म हो चुकी है।

इस कीमत पर
पर्व और त्यौहारी मांग की प्रतीक्षा में बैठा यह बाजार फिलहाल हाथ पंखा 40 से 50 रुपए, टोकना 100 से 150 रुपए, पर्रा 250 से 300 रुपए, सूपा 100 से 150 रुपए, फूल झाड़ू 50 रुपए, छिंद झाड़ू 15 रुपए और झौंहा 70 से 80 रुपए प्रति नग की दर पर बेच रहा है।