ग्रामीण क्षेत्र का बाजार बदल रहा स्वरूप
भाटापारा। कोरोना के पहले उपहास का पात्र। बेहद गैर जरूरी साधन, जो बेहद खर्चीला भी था। आज यह, ग्रामीण उपभोक्ता बाजार के लिए बेहद जरूरी बन गया है क्योंकि कोरोना के दौर में इसके जरिए ही गांव तक जरूरी उपभोक्ता सामग्रियां अपनी पहुंच बना सकीं।
बाइक ठेला। यह उसका नाम है, जो आज ग्रामीण बाजारों की पहचान बन गया है। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में यह बाइक ठेला रोजगार का ऐसा अवसर लेकर आया कि अब हाथ से जा चुकी नौकरी या दैनिक रोजी-मजदूरी की चिंता जाती रही। हाथ ठेला ने जहां शहरी उपभोक्ताओं तक होम डिलीवरी का सिस्टम मजबूत बनाया, तो ग्रामीण क्षेत्र में बाइक ठेला, इसका विकल्प बना। अब स्थिति ऐसी है कि बीते साल अंचल में लगभग सैकड़ा से ऊपर बाइक ठेला बने और पहुंचे। संख्या आज भी बढ़त की ओर है।
इसलिए बाइक ठेला
साप्ताहिक हाट-बाजार में हाथ ठेला या साइकिल पर दुकान ले जाना कठिन था। कोरोना और लॉक डाउन में जरूरतों ने विस्तार लिया, असर यह हुआ कि हाथ ठेला शहरी क्षेत्र में होम डिलीवरी के लिए चलते नजर आने लगे, तो ग्रामीण क्षेत्रों के लिए बाइक ठेले काम आए। ऐसी ही जरूरतों ने बाइक ठेला को ग्रामीण बाजार में पैठ जमाने में भरपूर मदद की।
इनको भी मिला अवसर
शहर में बाइक शोरूम और स्पेयर पार्ट्स की दुकानों के जरिए सेकंड हैंड बाइक बेचने वाले, ऐसी प्रतिकूल स्थितियों में मजबूत सहारा बने। पुरानी या लगभग कंडम हो चुकी दोपहिया के लिए उपभोक्ता भी तलाश में थे। यह पहला सहारा था उन लोगों के लिए जो बाइक ठेला बनाने के लिए साधन की तलाश में थे। क्रय शक्ति के भीतर उपलब्धता ने राह आसान कर दी।
मिला इनका भी सहारा
फेब्रिकेशन के लिए शहर की पहचान पूरे जिले में है। पुरानी या कबाड़ होती बाइक को नया स्वरूप देकर पिछला हिस्सा बदल दिया गया । पूरा ध्यान रखा गया कि यह ठेले भारी वजन सहने की क्षमता रख सकें। मेहनत सफल रही। इस तरह के बाइक ठेला के लिए बाइक और पिछला हिस्सा बनाने के बाद इनकी लागत आई लगभग 40 से 45 हजार रुपए। अब यह ग्रामीण बाजार की पहचान बन चुके है।