नगरीय निकाय रतनपुर आम चुनाव
संप्रसंलोग की लहसुनियां बघार
बुद्धिसागर सोनी
हिन्दी साहित्य में लोकोक्ति और कहावतों का अपना स्वतंत्र स्थान है। लोकोक्ति और कहावत देश काल परिस्थिति से परे सर्वकालिक एवं सार्वभौमिक ईकाई है जो वास्तविकता के धरातल से उपजता है। ऐसी ही एक कहावत है- अल्लाह मेहरबान तो गधा पहलवान। तकदीर जब साथ देता है तो परिस्थितियां प्रतिकूल हो तब भी अनुकूल रास्ते निकल आते हैं। अब देखिए ना 2019-20 के निकाय चुनाव में अध्यक्ष पद हेतु सीधे जनमत की जगह परिषदीय आसंदी द्वारा अध्यक्ष के चयन हेतु निर्वाचन आयोग द्वारा फरमान जारी किया गया। इस बार अध्यक्ष की कुर्सी अनुसूचित जाति पुरुष के लिए आरक्षित था। दोनों पार्टियों और निर्दलीय प्रत्याशी मिलाकर पार्षदीय आसंदी के लिए आरक्षित वर्ग से कुल जमा छह पुरुष प्रत्याशी मैदान में थे। चुनाव परिणाम आने के बाद बहुमत लाने वाली भाजपा पार्टी से आरक्षित वर्ग से एकमात्र पुरुष पार्षद घनश्याम रात्रे ही बचे थे। परिणाम स्वरूप उनका अध्यक्ष बनना तय था। हांलांकि आरक्षित वर्ग से निर्दलीय पार्षद ने भी अध्यक्षीय आसंदी के लिए ताल ठोंका लेकिन क्रास वोटिंग या भीतरघात की संभावना नहीं होनै के कारण घनश्याम रात्रे का पुनः अध्यक्षीय आसंदी पर कब्जा हो गया।
अपने पहले परिषदीय कार्यकाल में खाद्य विभाग का प्रभार संभालते हुए बीपीएल कार्डों के हेराफेरी के लिए तो दूसरे परिषदीय काल में अध्यक्ष की कुर्सी संभालते हुए निकाय के ठेका पद्धति में सेंधमारी के लिए चर्चित रहने वाले घनश्याम ने कुछ ऐसी कारगूजारी दिखलाई जिसने ना केवल नगर में बल्कि मंडल और प्रदेश सहित पूरे देश में भाजपा नेतृत्व को शर्मसार कर दिया।
आपको वैश्विक आपदा कोरोना तो याद होगा जिसने ना केवल भारत अपितु पूरे वैश्विक समुदाय को सैकड़ों साल पीछे धकेल दिया था। लेकिन कहते हैं ना कि चोर चोरी से जाये हेराफेरी से नहीं। कोरोना जैसे विप्लवकारी आपदा में भी घनश्याम ने अपनी बांसुरी बजा ही डाली। इस बार उनकी गिद्ध दृष्टि आपदाग्रस्त अवाम के लिए शासन द्वारा मुफ्त वितरण हेतु भेजे गये चांवल और मास्क तथा सेनेटाइजर पर गड़ गई। आरोप लगा, बदनामी हुई, जेल भी गये लेकिन वाह री नैतिकता के आधार पर कुर्सी छोड़ना तो दूर चेहरे पर शिकन तक नहीं दिखा।
भाजपा के इस परिषदीय कार्यकाल में ऐतिहासिक धार्मिक पर्यटन नगरी के फिजा में भ्रष्टाचार का ऐसा तूफान आया जिसमें मवेशी बाजार, रावण दहन मैदान सहित रेडक्रास सोसायटी की जमीन भी बह गया। अवाम के लिए शेष रह गया केवल पच्चीस वर्ष पुरानी यादें और उन यादों से उठने वाली टीसें।
मित्रों यह तो उन पच्चीस वर्षों का कच्चा पक्का चिट्ठा जिसने “छै आगर छै कोरी” तालाबों वाली लहुरी काशी की तस्वीर को गंदे नाला का दर्जा दिलाया। इस बार परिषद का सर्वोच्च आसंदी आरक्षण मुक्त है। उम्मीद है निर्वाचित माननीय का सरोकार, पद और शहर की प्रतिष्ठा को महिमा मंडित कर नई इबारत उकेरेंगे।
आगामी कड़ी आपके नजरों में आने तक चुनावी मैदान में रणनाद का शोर सुनाई पड़ रहा है। स्कूटनी उठने के बाद कुल दस सेनापति मैदान में रह गये हैं। आगामी कड़ियां सेनापतियों के वायदों, प्राथमिकताओं और रणनीतिक दांव-पेंचों पर आधारित होगा। जिसमें नगर के वार्डों की बुनियादी समस्याओं, जनाकांक्षाओं की चर्चा होगी। विगत कड़ियां आपको कैसी लगी इस पर संपादक को सुझाव अवश्य दें।
लेखक साहित्य सेवक एवं सामाजिक कार्यकर्ता हैं आलेख लोक मीमांसा पर आधारित उनके निजी विचार है। इसमें कोई भी संपादकीय हस्तक्षेप नहीं है।