सुदीप ठाकुर वरिष्ठ पत्रकार

भारतीय लोकतंत्र आज कुछ विपन्न हुआ है, क्योंकि एक रात के अंतर में उसके दो बड़े हिमायती कानूनविद् फली एस नरीमन और रेडियो के जरिये घर-घर तक अपनी आवाज़ का जादू फैलाने वाले अमीन सयानी नहीं रहे। बीती रात यानी 20 फरवरी को अमीन सयानी की मौत हो गई और आज सुबह यानी 21 फरवरी को नरीमन साहब की।
नरीमन साहब 95 बरस के थे और सयानी साहब 91 बरस। यानी दोनों का सफ़र करीब करीब एक साथ शुरु हुआ और दोनों ने कुछ घंटों के अंतर से दुनिया को अलविदा कह दिया।
दोनों के क्षेत्र अलग थे., लेकिन दोनों भारत के उस विचार के साथ आगे बढ़े, जिसे आजादी के आंदोलन और उसके बाद के शुरुआती दशकों में आकार मिला था। और क्या यह महज इत्तफाक नहीं कि दोनों भारत की बहुलतावाद के प्रतीक भी थे। नरीमन साहब पारसी थे, तो सयानी साहब मुस्लिम। और इससे भी बढ़कर दोनों ही किसी भी भारतीय से कहीं अधिक भारतीय थे।

बेशक दोनों की राहें अलग थीं, लेकिन मुकाम दोनों के एक ही थे। 1970 का दशक दोनों के उत्कर्ष का दशक भी कहा जा सकता है, जब भारतीय लोकतंत्र अपने एक बेहद मुश्किल दौर से गुजर रहा था।

12 जून, 1975 को इलाहाबाद हाई कोर्ट के जस्टिस जगमोहन सिन्हा ने अपने चर्चित फैसले में 1971 में रायबरेली से प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के निर्वाचन के खिलाफ फैसला सुनाया था। यह फैसला उनके खिलाफ चुनाव लड़ने वाले राजनारायण की याचिका पर आया था। फैसला इस बिना पर दिया गया था, कि इंदिरा और उनके चुनाव प्रबंधकों ने सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग किया था। एक कारण यह भी बताया गया था कि उनके ओसएडी रहे यशपाल कपूर सरकारी सेवा में रहते हुए उनका चुनाव प्रबंधन देख रहे थे। हालांकि इसके पीछे सिर्फ तकनीकी अड़चन थी, क्योंकि यशपाल कपूर ने मौखिक तौर पर तो अपने त्यागपत्र की जानकारी तत्कालीन प्रिंसिपल सेक्रट्री पी एन हक्सर को दे दी थी, लेकिन उसे मंजूर होने में कुछ दिन लग गए।
यह फैसला इंदिरा के लिए बड़ा झटका था, लेकिन इसे एक कमज़ोर फैसला मानने वालों की कमी नहीं थी। उनमें से एक फली एस नरीमन साहब भी थे, जो तब अतिरिक्त महाधिवक्ता थे। दरअसल इंदिरा के मुख्य सचिव पी एन धर ने इस फैसले के बाद काफी लोगों से सलाह-मशविरा किया। उन्होंने इसकी जानकारी इंदिरा को दी। उन्होंने नरीमन साहब से भी बात की और बताया कि नरीमन का कहना है कि फैसला अत्यंत कमज़ोर तर्कों के आधार पर दिया गया है, जो कि सुप्रीम कोर्ट में टिक नहीं पाएंगे। मगर इंदिरा और उनसे कहीं अधिक उनके पुत्र संजय ,जल्दबाजी में थे।

बेशक, सुप्रीम कोर्ट ने 24 जून को इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले पर रोक लगाते हुए इंदिरा को राहत दे दी, मगर उसके अगले दिन ही दिन 25 जून को दिल्ली में जेपी की चर्चित रैली के बाद देश में इमरजेंसी लगा दी गई। इसके विरोध में फली एस नरीमन ने अतिरिक्त महाधिवक्ता के पद से इस्तीफा दे दिया। आज सरकार के हर फैसले से कदम ताल मिलाने वाले और उसके हर धतकरम में साथ देने वाले किसी अधिकारी में इतना नैतिक साहस नहीं बचा है कि वह नरीमन की तरह कोई कदम उठा सके। ताजा उदाहरण किसान आंदोलन और चंडीगढ़ के मेयर का चुनाव है।

1970 के दशक के उसी दौर में जब ट्रेड यूनियन की हड़तालों और छात्र आंदोलन से लेकर जेपी की संपूर्ण क्रांति ने भारतीय आवाम की हताशा को गोलबंद किया था, तब रेडियो में गूंजती एक आवाज़ मायूस चेहरों पर हल्की सी मुस्कान ला देती थी। यह आवाज़ अमीन सयानी की थी, जिनके बिनाका गीतमाला की प्रतीक्षा लोग करते थे। लोग हफ्ते दर हफ्ते कापियों में गानों की फेहरिस्त का रिकॉर्ड रखते थे। बिनाका गीतमाला का नाम बाद में सिबाका हो गया था। अपनी आवाज़ और शानदार प्रस्तुति के जरिये अपने करोड़ों अनजान श्रोताओं को अमीन सयानी ने सचमुच एक सूत्र में पिरो दिया था। यह वाकई दुर्लभ है।

फली एस नरीमन और अमीन सयानी सचमुच भारत की दो बेजोड़ हस्तियां थीं, जिनकी अनुपस्थिति ने मायूस कर दिया है।

By MIG