बिलासपुर। एनटीपीसी का सीपत स्थित ताप विद्युत केंद्र ताप भी दे रहा है और बिजली भी। ताप और दाब साथ-साथ होते हैं। सीपत संयंत्र पश्चिम क्षेत्र को बिजली दे रहा है और बिलासपुर को ताप दे रहा है। एक बुजुर्ग कहते हैं– जैसे कांग्रेस के राजनेता कांग्रेस को “ताप” देंगे , उसी तरह सीपत बिलासपुर को “ताप” रहा है। सीपत हजारों मेगावाट बिजली का उत्पादन करने वाला संयंत्र है । (कुछ लोग संयंत्र का उच्चारण षड़यंत्र भी करते हैं) एनटीपीसी की वजह से दिवाली मन रही है। चारों तरफ जगमगाहट है। जगमग- जगमग है । “ दिन को होली-रात दिवाली रोज मनाती मधुशाला…” की तर्ज पर एनटीपीसी रौशनी का मायाजाल रच रहा है। इस जगमगाहट की कीमत चुका रही है प्रकृति। कोयला, पानी, वृक्ष, खेत, नदी, पशु- पक्षी, जलचर, थलचर, नभचर और मनुष्यों के विस्थापन पर आधारित है, यह एनटीपीसी। अर्थात ऐसा भी कह सकते हैं कि- समाज की छाती पर विकास का पदाघात है। बहरहाल , एनटीपीसी ने मुआवजा बांटा। कुछ नौकरियां बांटी और सरकार के नियमों के तहत सीएसआर फंड के तहत कुछ विकास कार्य भी किए। सामुदायिक सामाजिक उत्तरदायित्व इन कंपनियों का बनता है; यह भारत सरकार का नियम कहता है। “अन्न जहां का हमने खाया, वस्त्र जहां के हमने पहने…” अर्थात यहां से हम मिट्टी, पानी और बयार लेते हैं । ” मिट्टी, पानी और बयार- यह हैं धरती के उपकार। और इन तीनों के उपयोग से बिजली बनती है तो एनटीपीसी की जिम्मेदारी होती है कि वह समुदाय का कर्ज चुकाये। इसी क्रम में वह एक राशि खर्च करती है, समुदायों के हित के लिए। लोगों का मानना है कि समुदाय में पशु -पक्षी भी आते हैं और पशु -पक्षियों का बड़ा योगदान है, पर्यावरण को बनाए रखने में। चिड़िया यदि ना हो तो पीपल ,बरगद, गूलर और इसी प्रजाति के अन्यान्य वृक्ष नहीं बचेंगे। सभी का एक दूसरे से गहरा संबंध है। चिड़िया पीपल, बरगद के फलों को खा कर बीट करती है और तब उनमें से अंकुर आते हैं। आज तक पीपल बरगद के वृक्ष नर्सरी में पैदा नहीं किए जा सके हैं । कोई भी समुदाय पशु- पक्षी, मनुष्य, मिट्टी- पानी, हवा से मिलकर बनता है। जैव विविधता का सिद्धांत ही इस बात पर स्थापित है कि, “तुम्हीं तुम हो तो क्या तुम हो , हमीं हम हैं तो क्या हम हैं ? ” “ हम बने, तुम बने : एक दूजे के लिए…” एनटीपीसी द्वारा किए जा रहे समुदाय विकास के कार्यक्रमों में चिड़ियों का स्थान नगण्य है।चिड़ियां दूर-दूर से आती हैं। उन्हें सिर्फ इस बात की अपेक्षा होती है कि उनके मूल स्थान पर कब्जा जमाकर बैठे, एनटीपीसी वाले चिड़ियों के लिए, उनके छोटे- छोटे, नन्हें-मुन्ने चूजों के लिए, चूं -चूं करते बच्चों के लिए थोड़ा सा दाना, थोड़ा पानी रख दें। “थोड़ा सा दाना, थोड़ा सा पानी इतनी ही है चिड़ियों की कहानी। ” “न मांगू सोना-चांदी, न मांगू हीरे-मोती; ये मेरे किस काम के ? देता है दिल दे, बदले में दिल के … ” परंतु एनटीपीसी को लगता है कि सोशल मीडिया इत्यादी को प्रेस “नोट” बांट कर काम चलाया जा सकता है। चिड़ियों की कौन परवाह करता है ? चिड़ियों का क्या है ? … दो पंछी दो तिनके कहो लेके चले हैं कहाँ? ये बनायेंगे इक आशियां … ” चिड़ियां कुछ बोलेंगी नहीं, अपना आशियां बना लेंगी । शासन-प्रशासन में चिड़ियों की कोई भूमिका नहीं है इसलिए इनसे क्या डरना ? ऐसा एनटीपीसी का मानना है। वे भूल जाते हैं कि कबीर दास जी कह गए हैं… “निर्बल को न सताइए, जाकी मोटी हाय। मरी खाल की सांस से लौह भस्म होई जाय।।” एसटीपीेसी बाबू— “जब जागे तभी सवेरा ।” “आना है तो आ राह में कुछ देर नहीं है… भगवान के घर देर है, अंधेर नहीं है …” “सुबह का भूला शाम को घर लौट आए तो उसे भूला नहीं कहते …” लौट आओ एनटीपीसी बाबू, नहीं तो लोग कहेंगे … “एक चिड़िया की कीमत तुम क्या जानो एनटीपीसी बाबू … ” “ जय जय ।”

साभार *बैम्बू पोस्ट डाट काम*