अब भलई दादी हमारे बीच नहीं रही। कल हुए हाथी के हमले में उनकी मृत्यु हो गई। भलई दादी विशेष पिछड़ी जनजाति पहाड़ी कोरवा समुदाय से आती हैं। गांव से 3 km दूर जोगीदरहा में दादा गंगाराम के साथ रहकर खेती करते और मवेशी पालते थे। जंगल से वनोपज एकत्रित करना भी उनका मुख्य कार्य था। मेरी प्रबल इच्छा उनके घर जोगीदरहा तक पहुंचने की हमेशा से रही लेकिन साथी न मिलने के कारण कभी नहीं पहुंच पाया। लोग बताते है कि वहां नाले में एक तालाब जैसा बना है, वहां कुछ समतल जमीन है जहां खेती करते हैं। दो पहाड़ों के बीच से एक संकरा रास्ता उस जगह तक जाता है। इसी संकरे रास्ते को हाथी ने चुना और उनके झोपड़ी तक पहुंच गया। दादी घर से भागी लेकिन कितना भागती, दादा गंगाराम घर में दबे तो बच गए। दो मवेशियों को भी मार दिया।
दादी के गांव वाले घर का रास्ता मेरे स्कूल से होकर जाता है और इसलिए हमारी अक्सर मुलाकात स्कूल के पास ही होती थी। गांव में मेरी फेवरेट दादियों में यह भी थी जिन्हें अक्सर मैं ढूंढता रहता था। जब ये जोगीदरहा से लौटती तो झाडू बनाकर लाती। स्कूल आती, हम बिना देर किए उन्हें बैठाते, पानी पिलाते और उनके पास जो भी होता उसे बेवजह खरीद लेते। मुझे अच्छी तरह याद है पिछली बार जब वह आई थी तो दो झाडू लेकर आई थी। उनमें से एक झाडू आज भी टंगी है। जब वे आती तो उनके लिए मेरे पास कुछ न कुछ जरूर होता था। कभी साड़ी, कभी कंबल, कभी चप्पल ( वें चप्पल बहुत कम पहनती थी।) और दादा जी के लिए लूंगी और कुर्ता। जो भी चीजें उनकी जरूरत की होती वह देता।
एक बार तो ऐसा हुआ था कि आयुष्मान कार्ड बनाने के लिए उन्हें हर ओर ढूंढा पर वे नहीं मिली। थक हार जब स्कूल लौटा तो वे दोनो स्कूल के पास बैठे मिले। कभी कभी तो लगता है ईश्वर मेरे मन की बात सुनते हैं। इसलिए ईश्वर पर मेरी अटूट आस्था है।अब जब दादी नहीं रही तो उनका लाठी टेक चलना मुझे दिख रहा। उनकी भोली सूरत बिलकुल आंखो से ओझल होने का नाम नहीं ले रहा। उनकी प्यारी सी आवाज मेरी कानों में गूंज रही है।
तूं तो न गुरुजी अछेच मजाक करथा।
तूं नी देइहो तो कोन देही।
तुई तो हमर सरकार हा।
तुंहर मन लगथे तिसना देई देवा।
कमाबो नई त काला खाबो।
तूं लुगा न थोड़ी पिहनिहा?
मोटरा ल तुंहला देइ राखत हन।
…. न जाने ऐसी कितनी लाइनें जो ओ मुझसे कहती थी। आज भलई दादी ने मुझे अपनी दादी की याद दिला दी। मेरी अपनी दादी हमेशा मेरे लिए बिस्तर के नीचे पैसे छुपाकर रखती थी और मुझे चुपके से बुलाकर देती थी। अफसोस मैं उनके लिए कुछ नहीं कर पाया।
भलई दादी को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि। आपकी आवाज मेरी कानों में अब भी गूंज रही है।
Shrikant Singh की फेसबुक वॉल से साभार